जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) छायावादी युग के कुछ प्रमुख लेखकों में से एक हैं। इन्हीं के नाम पर ही छायावादी युग को ‘प्रसाद युग’ भी कहा जाता है। छायावाद के चार स्तंभों में सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा के साथ जयशंकर प्रसाद का भी नाम आता है। प्रसाद जी एक मूर्धन्य नाटककार, श्रेष्ठ कहानीकार, उपन्यासकार और महान् कवि भी थे।
खुलकर सीखें के आज के इस ब्लॉगपोस्ट के माध्यम से हम जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, भाषा-शैली, और उनकी प्रमुख रचनाओं के बारे में पढ़ेंगे।
नाम | जयशंकर प्रसाद |
जन्म | 30 जनवरी, 1889 ई0 |
जन्म-स्थान | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
पिता का नाम | बाबू देवीप्रसाद |
माता का नाम | मुन्नी देवी |
पेशा | लेखन |
मृत्यु | 15 नवम्बर, ।937 ई0 |
मृत्यु-स्थान | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु का कारण | क्षय रोग |
प्रमुख रचनाएं | विशाख, राज्यश्री, छाया, इन्द्रजाल, कामायनी, झरना, लहर, आँसू, कंकाल, तितली |
विधाएं | नाटक, कहानी, उपन्यास, काव्य |
भाषा | शुद्ध, सरस, साहित्यिक एवं संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली |
शैली | वर्णनात्मक, आलंकारिक, भावात्मक, चित्रात्मक एवं विचारात्मक शैली |
Jaishankar Prasad ka Jivan Parichay: जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के प्रसिद्ध वैश्य परिवार में 30 जनवरी, 1889 ई0 को हुआ था। इनका परिवार अत्यंत समृद्ध था और “सुंघनी साहू” के नाम से प्रसिद्ध था। प्रसादजी के माता का नाम मुन्नी देवी तथा पिता का नाम बाबू देवीप्रसाद था जो स्वयं साहित्य-प्रेमी थे। इस प्रकार प्रसादजी को जन्म से ही साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ। प्रसादजी ने 9 वर्ष की अल्प आयु में ही एक कविता की रचना की जिसे पढ़कर इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी ने इन्हें महान् कवि बनने का आशीर्वाद दिया।
प्रसादजी ने बाल्यावस्था में ही अपने माता-पिता के साथ देश के विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा की। कुछ समय बाद ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो गयी। इनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध बड़े भाई श्री शम्भूनाथ जी ने किया। सर्वप्रथम उनका नाम “क्वींस कालेज” में लिखाया गया, किन्तु वहाँ उनका मन नहीं लगा और घर पर ही योग्य शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे।
जब वह 17 वर्ष के थे तभी बड़े भाई शम्भूनाथ जी की मृत्यु हो गयी। उन्होंने तीन शादियाँ कीं, किन्तु तीनों ही पत्नियों की असमय मृत्यु हो गयी। इसी बीच इनके छोटे भाई की मृत्यु हो गयी। लेकिन उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी अपने धैर्य को बनाये रखा। उन्होंने स्वाध्याय को कभी नहीं छोड़ा। घर पर ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन, संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और हिन्दी का गहन अध्ययन करते हुए हिन्दी की सेवा में जुटे रहे।
लेकिन कई सारी असामयिक मौतों से वह अन्दर-ही-अन्दर टूट गए थे। संघर्ष और चिन्ताओं ने स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुँचायी। क्षय रोग से पीड़ित होने के कारण 15 नवम्बर, ।937 ई0 को 47 वर्ष की आयु में ही काशी में ये परमधाम को प्राप्त हो गए।
Jaishankar Prasad ka Sahityik Parichay: हिन्दी के सभी प्रचलित विधाओं में लेखन करने वाले जयशंकर प्रसाद छायावादी युग के प्रमुख लेखक और कवि हैं। छायावाद के चार स्तंभों में सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा के साथ इनका भी नाम आता है। प्रसाद का साहित्य जीवन की कोमलता, माधुर्य, शक्ति और ओज का साहित्य माना जाता है।
छायावादी कविता की अतिशय काल्पनिकता, सौंदर्य का सूक्ष्म चित्रण, प्रकृति-प्रेम, देश-प्रेम और शैली की लाक्षणिकता उनकी कविता की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इतिहास और दर्शन में उनकी गहरी रुचि थी जो उनके साहित्य में स्पष्ट दिखाई देती है।
इन्होंने भारत के उज्ज्वल अतीत को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। प्रसादजी ने भारतीय इतिहास एवं दर्शन का अध्ययन किया और उसके आधार पर ऐतिहासिक नाटकों के क्षेत्र में युगान्तर उपस्थित किया। इन्होंने अल्पायु में ही श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। इनका सम्पूर्ण जीवन माँ भारती की आराधना में समर्पित था।
Jaishankar Prasad ki Pramukh Rachnaye: प्रसादजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। ये महान् कवि, उपन्यासकार, सफल नाटककार, कुशल कहानीकार और श्रेष्ठ निबन्धकार थे। Jaishankar Prasad ki Rachnaye अर्थात उनकी कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
नाटक– इनके प्रमुख नाटक चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, श्रुवस्वामिनी, विशाख, राज्यश्री, कामना, जनमेजय का नागयज्ञ, करुणालय, एक घूँट, सज्जन, प्रायश्चित आदि हैं।
उपन्यास– कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) आदि प्रमुख उपन्यास हैं।
कहानी-संग्रह– प्रतिध्वनि, छाया, इन्द्रजाल, आकाशदीप तथा आँधी प्रमुख कहानी-संग्रह हैं।
काव्य– कामायनी (महाकाव्य), झरना, लहर, आँसू, महाराणा का महत्त्व, कानन कुसुम आदि प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ हैं।
निबन्ध-संग्रह– काव्य कला और अन्य निबन्ध हैं।
Jaishankar Prasad ki Bhasha Shaili: प्रसादजी की भाषा शुद्ध, सरस, साहित्यिक एवं संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है। एक-एक शब्द मोती की भाँति जड़ा हुआ है। इनकी शैली के विविध रूप इस प्रकार हैं-
वर्णनात्मक शैली– प्रसादजी ने अपने नाटकों, उपन्यासों एवं कहानियों में घटनाओं का वर्णन करते समय इस शैली को अपनाया है।
आलंकारिक शैली– प्रसादजी स्वभावतः कवि थे, अतः इनके गद्य में भी भिन्न-भिन्न अलंकारों का प्रयोग मिलता है।
भावात्मक शैली– भावों के चित्रण में प्रसादजी का गद्य भी काव्यमय हो जाता है। इसमें भाषा अलंकृत और काव्यमयी है। इनकी प्रायः सभी रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं।
चित्रात्मक शैली– प्रकृति वर्णन और रेखाचित्रों में यह शैली मिलती है।
इसके अतिरिक्त सूक्ति शैली, संवाद शैली, विचारात्मक शैली एवं अनुसन्धानात्मक शैली का प्रयोग भी प्रसादजी ने किया है।